Updated: Aug 5, 2022
भारत के प्रथम स्वातंत्रता आदोलन के विषय में कुछ आंग्ल विद्वानों की धारणा हो सकती है कि वह देसी सिपाहियों का गदर मात्र था जिसे भड़काने में ऐसे सामन्तों एवं राजाओं का हाथ था जिनके निजी स्वार्थों को ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार से आघात पहुँच रहा था। लेकिन सन् 1857 के घटनाक्रम एवं साक्ष्यों के विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि 10 मई 1857 को मेरठ छावनी से आरम्भ हुई भारत की आजादी की पहली लड़ाई मात्र सैनिक विद्रोह नहीं थी बल्कि क्रांति की एक ऐसी लहर थी जिसने एक विकराल ज्वार का रूप लेकर भारत में अंग्रेजी साम्राज्य की जड़ों को हिला कर रख दिया था। 1857 की क्रान्ति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और मार्मिक पहलू यह था कि इसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों अपने राष्ट्रीय धर्म की रक्षा के लिये एक थे। इससे पहले अंग्रेज शासक हिन्दुस्तानियों को हिन्दु, मुसलमान, सिख, पारसी और ईसाई की नजर से देखते रहे थे। अपनी इस मानसिकता के वशीभूत उन्होंने 1857 की क्रान्ति को मात्र सैनिक विद्रोह माना तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

10 मई 1857 ई० को मेरठ में हुए प्रस्फुटन को अंग्रेज अधिकारी तुरंत तो समझ ही नहीं पाये थे फिर कुछ समय पश्चात् जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार को इसका विवरण ब्रिटेन की सरकार को देना पड़ा तब भारत में हुए घटनाक्रम को क्रान्ति बताकर इस समस्त घटना को महिमा मण्डित करने की उनसे अपेक्षा कैसे की जा सकती थी। व्यवहारिक दृष्टि से तो 1857 की क्रांति को देसी सिपाहियों का विद्रोह बताकर अपने लिये पथ निष्कंटक रखना ब्रिटिश साम्राज्य के हितों के अनुरूप ही था। 1857 के समय इतिहास अधिकतर ब्रिटिश तथा यूरोपीय विद्वानों द्वारा लिखा गया। इनमें अधिकांश विद्वान तो स्वयं अधिकारी ही थे जिनकी भावना अपने देश तथा सेना के प्रति झुकी होना स्वाभाविक है। ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों द्वारा इतिहास लिखे जाने के पीछे एक कारण यह भी है कि सैन्य अधिकारियों की पहुँच सरलता से उन प्रपत्रों एवं अभिलेखों तक थी जो सामान्य नागरिकों की पहुँच से बहुत बाहर थे। इन तथ्यों के कारण 1857 के तुरंत बाद लिखे जाने वाले इतिहास पर पूर्वाग्रहों की छाप रही। कुछ समय पश्चात् 1857 के उद्भव के कुछ अछूते पक्ष भी सामने आने लगे। धीरे-धीरे इतिहासकार दो अलग-अलग विचार धाराओं में बँट गये। एक तरफ वे इतिहासकार थे जो 1857 के उद्भवन को पूरी तरह से देसी सिपाहियों का विद्रोह मानते थे दूसरी ओर वे थे जिनकी धारणा थी कि यह सैनिक विद्रोह नहीं अपितु एक जन क्रान्ति थी जिसने देश को विदेशी पराधीनता से मुक्त करने का प्रयास किया था।
मेरठ में 10 मई 1857 को जो कुछ हुआ उसे बाजार की अफवाहों द्वारा भड़के हुए सैनिकों को कार्यवाही मान कर यदि चलें तो भी कुछ यह निश्चित नहीं कर सकते कि आगे जो कुछ भी था वह सब 10 मई की प्रतिक्रिया स्वरूप हो गया था तथा उसके पीछे कोई निश्चित योजना नहीं थी। बल्कि इसका लाभ उठाकर हिन्दुस्तान के विभिन्न राजाओं तथा सामंतो, जिनसे कम्पनी सरकार ने राज्य छीन लिया था,ने धर्म तथा जातियों के आधार पर देशी सैनिकों तथा प्रजा को भड़काया तथा कम्पनी को सरकार के विरूद्ध खड़ा कर दिया। पहली बात तो यह है कि यदि देशी शासक विदेशी साम्राज्यवादियों से अपना राज्य ही वापस लेना चाहते थे तो इसमें अनुचित क्या था? किसी भी राष्ट्र में जन्में व्यक्ति द्वारा अपने
राष्ट्र को विदेशी शासन से मुक्त कराने का प्रयास सर्वोपरि कर्तव्य है। यदि तत्कालीन अंग्रेजी साम्राज्य इस तथ्य को साबित कर रहा था कि भारत इससे पहले एक राष्ट्र था ही नहीं तो यह भूल भारत को सांस्कृतिक प्रथा, सामाजिक विभिन्नताओं को न समझ सकने के कारण थी। यहाँ तक कि स्वयं कुछ भारतीयों द्वारा (अज्ञात कारणवश) भी यही समझ लिया गया था।
भारतवर्ष में अनेक कारणों से राजनीति तथा सामाजिक दायरों में धर्म सदा ही प्रयुक्त होता रहा किन्तु उसका कारण सकारात्मक होता था नकारात्मक नहीं, वैसा तो बिल्कुल भी नहीं जैसा कि तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियों के उस समय के दिये गये वक्तव्यों को देखें तो स्पष्ट होता है कि भारतीय संस्कृति को लेकर वे कितने भ्रमित थे। जनवरी 1858 में सर जेम्स आउटम ने लिखा है,
"What amazing statements and opinions one hears both in India and in England. What can be more rediculous that the cry that the rebellion was caused by the annexation of Oudh, or that it was solely a mlitary mutiny? Our soldiers have deserted their standards and fought against us, but, the rebellions did not originated with the Sipahis, the rebellion was set on foot by the Mohamdens and long before we rescued Oudh from her oppressor. It has been ascertained that prior to that Mussalman fanatics traversed the land, reminding the faithful that it has been foretold in prophacy that a foregin nation would rule believers would regain their ascendancy.
जनरल जे० बी० हियरसे द्वारा 15 मार्च को बैरकपुर में बिठाई गयी जाँच अदालत का मानना था कि "पलटन के हिन्दू विश्वसनीय नहीं थे जबकि मुस्लिम तथा सिख थे "
ले० जनरल इन्नेस ने लिखा है "The entire Mohemden population were as a body, rebels at heart and resented the christian supermacy.......
सुरेन्द्र नाथ सेन ने कर्नल हण्टर के इन वाक्यांशो को उद्धत किया है,
"Caste did not cause the mutiny, the Santhals are casteless tribe, the Bhils acknowlege no caste distinction, but they also fraternised in some areas with the mutinious sepoys. The low caste sappers rose in arms at Meerut. The humble Pasi joined the religious war as did the high born Brabmins.
उपरोक्त समस्त टिप्पणियाँ अंग्रेज अधिकारियों द्वारा दी गयी हैं किन्तु जिस प्रकार से ये एक दूसरे को काटती हैं उससे स्पष्ट है कि क्रांति किसी धर्म अथवा जाति के व्यक्तियों के लाभ के लिए नहीं वरन् एक सर्वज्ञात सत्य के कारण हुई थी जिसके केन्द्र में शोषक विदेशी राज्य से मातृभूमि को मुक्त कराने की भावना प्रबल थी।
सन् 1885 के पश्चात् हुए स्वतंत्रता आंदोलनों में भी जनसाधारण को उससे जोड़ने के लिए सभी धर्मों का सहारा लिया गया किन्तु कठिन प्रयास के बाद भी ब्रिटिश साम्राज्य इस आंदोलन को यह कह कर खारिज नहीं कर पाया कि यह एक धार्मिक उन्माद था। ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि इस काल का नेतृत्व इतना परिपक्व हो चुका था कि अपने आंदोलन को ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा विश्व के सम्मुख धार्मिक प्रतिक्रिया के रूप में प्रस्तुत किये जाने का असफल कर सकता। इनमें से अधिकांश नेता या तो 1857 के उद्भव के समय अल्पावस्था के रहे थे अथवा अधिकांश का तो जन्म ही 1857 के पश्चात् हुआ था तथा ये नायक 1857 के इतिहास को समझने में सफल रहे थे। 1857 के इस तथ्य को समझ विदेशी साम्राज्य भी गया था इसलिये उसने 1857 के तुरन्त पश्चात् से ही देश को धार्मिक धड़ों में विभाजित करने के कार्य प्रारम्भ कर दिये थे। अंग्रेजी शासकों के इस प्रयास में सर सय्यद अहमद के रूप में उन्हें अपना एक प्रबल समर्थक मिल गया। 1857 की क्रान्ति में मुसलमानों की हिन्दुओं के साथ सहभागिता से उत्पन्न उनके प्रति अंग्रेजी शासन के कोप और शंका को मिटाने के लिये सर सय्यद ने लेख और किताबें लिखकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि गदर के मुख्य अपराधी मुसलमान नहीं थे, और थे भी तो, उन्होंने आवेश में आकार गलती की थी। जिसके लिये सरकार से उन्हें क्षमा मिलनी चाहिये। अपनी पुस्तक 'द लायल मोहमडन्स आव् इण्डिया', 1860-61 ई० में उन्होंने उन मुसलमानों की गिनती गौरव से करवाई जिन्होंने गदर के समय अंग्रेजों का साथ दिया था। मुसलमान विद्रोही हैं, इस बात का खण्डन उन्होंने लगातार किया और बार-बार कहा कि इस्लाम आजादी का तरफदार नहीं हो सकता। लेकिन इतिहास साक्षी है कि 11 मई 1857 की प्रातः मेरठ से दिल्ली जाकर हिन्दु और मुसलमानों ने अपने राष्ट्रीय धर्म का पालन करते हुए अंग्रेजी राज को चुनौती देकर बहादुर शाह जफर को हिन्दुस्तान का सम्राट घोषित कर लाल किले पर हिन्दुस्तान की आजादी का झण्डा फहराया था। 1857 से पूर्व सेना में हिन्दू और मुसलमान एक ही रेजीमेन्ट में रखे जाते थे। उनमें हिन्दू और मुसलमान का कोई भेद नहीं होता था। अपने देश के लिये उनके दिलों में एक सा जज्बा रहता था। मेरठ में 24 मई की फायरिंगं परेड में जिन 85 सिपाहियों ने चर्बी युक्त कारतूस का इस्तेमाल करने से इन्कार कर दिया था तीसरी कैवेलरी के उन 85 सैनिकों में हिन्दू और मुसलमानों की संख्या लगभग समान थी। 1857 को क्रान्ति के बाद सर सय्यद ने अंग्रेजों को फटकारा था कि हिन्दुस्तानी सेना में अंग्रेजों ने हिन्दु और मुस्लिम रेजीमेन्ट अलग-अलग क्यों नहीं रखे कि हिन्दु बागियों को मुस्लिम और मुस्लिम बागियों को हिन्दु सेना तबाह कर देती। क्यों उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों को एक ही रेजीमेन्ट में रखकर उन्हें दोस्त बनने का मौका दिया। सर सय्यद का इस प्रकार का आचरण एक अपवाद मात्र है। 1857 में घटित घटनाएँ, अग्रणी नेताओं द्वारा बनाई गई योजनाएँ और धर्म की संकीर्णता से परे दोनों संप्रदायों की समान रूप से क्रान्ति में सहभागिता हिन्दु-मुस्लिम समन्वय का अकाट्य प्रमाण है। केय ने उल्लेख किया है कि फारस के राजकुमार मोहमरा के पास एक घोषणा पत्र की प्रतिलिपी पायी गई थी जिसमें मुसलमानों को भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध जिहाद के छेड़ने के लिये कहा गया था। इसी तरह का दूसरा उल्लेख उस समय लखनऊ से निकलने वाले अखबार " अशरफ-उल-अकबर" में मिलता है। 22 मार्च 1857 के संस्करण में स्पष्ट किया गया था कि कैसे फारसियों ने हिन्दुस्तानी मुसलमानों को अंग्रेजों के विरुद्ध जिहाद छेड़ने को उकसाया था। रसेल ने अपनी इण्डियन डायरी में नाना घोंघू पंत के सलाहकार अजीमुल्ला का उल्लेख किया है जो अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिये लगातार रुस, फ्रांस और फारस से सम्बन्ध बनाये हुए थे। मौलवी अहमदुल्ला शाह जो मौलवी फैजाबाद के नाम से विख्यात थे बेगम हजरत महल के कार्यकारी हाथ थे| मेरठ की घटनाओं के सन्दर्भ में गुलावठी के एक निवासी इनायतुल्ला ने रावलपिण्डी में रहने वाले अपने भाई फैजल हूसेन को एक गुमनाम मौलवी के विषय में लिखा था कि, "एक मौलवी मेरठ से तथा दूसरे किसी अन्य स्थान से छः हजार आदमी लेकर जेहाद के लिये दिल्ली गये थे। मेरठ से 10 मई 1857 की रात को सैनिकों के साथ किसी मौलवी के दिल्ली जाने के अन्य साक्ष्य भी हैं। तीसरी कैवेलरी के सवार रणधीर सिंह ने मेजर विलियम्स को जो बयान दिया उसमें रणधीर सिंह ने बतलाया है कि उसे कल्लू नाम का जेल रक्षक जो बाद में दिल्ली में मारा गया, प्रस्फुटन के पाँच छः दिन बाद कुछ व्यक्तियों के साथ मिला था जिसने उसे बताया था कि वे मौलवी के साथ दिल्ली जा रहे थे। मौलवी का नाम रणधीर सिंह के बयान में नहीं बताया गया। इसी आशय का बयान तीसरी हल्की अश्वसेना के हवलदार कुम्भन सिंह ने भी दिया था। जब उसने मेजर विलियम्स को बयान में बताया प्रस्फुटन के अलगे दिन उसे उसका भतीजा (जो कि जेल से छुड़ाये गये बंदी सैनिकों में था) सेवा सिंह मिला था जो दिल्ली नहीं जा सका था। कुम्भन सिंह को उसके भतीजे ने बताया था कि शहर में रात्री में दो दलों ने अग्निकांड तथा हत्याएं की थी जिनमें से एक का नेतृत्व नाई बाजार में रहने वाले मुहम्मद अली खान ने किया था तथा दूसरा दल एक मौलवी के साथ जुड़ा था।
मौलवी का नाम कुम्भन सिंह भी नहीं जानता है किन्तु मेरठ में मौलवी की उपस्थिति प्रमाणित होती है जो "जेहाद" के लिये कुछ लोगों को साथ लेकर दिल्ली जाने वाले पत्र के उल्लेख को प्रमाणित कर देती है। 1857 के मौलवियों में ऐसे दो ही मौलवी थे जो स्वयं क्रांतिकारी योद्धा थे। एक मौलवी (फैजाबाद) अहमदुल्ला तथा दूसरे मौलवी लियाकत अली। मेरठ गजेटियर में 1856 के अंत में मौलवी अहमदुल्ला ने मेरठ आने तथा देशी सैनिकों को राजनीतिक स्वतंत्रता के उपदेश देने का उल्लेख किया है। यही मौलवी अहमदुल्ला 16 फरवरी 1857 को फैजाबाद में थे तथा परिस्थितियों से लगता है कि वे फरवरी 1857 के प्रारम्भ से ही वहाँ थे क्योंकि फैजाबाद के कोतवाल ने मौलवी अहमदुल्ला के सराय में ठहरे होने तथा उनके पास लोगों के आवागमन की सूचना ले० टॉर्नबर्न को दी थी। कोतवाल का कहना था कि मौलवी द्वारा लोगों में असंतोष फैलाये जाने का खतरा था।" इसके बाद मौलवी अहमदुल्ला शाह का सराय में हुए खण्ड युद्ध के बाद 17 फरवरी को गिरफ्तार कर लिया गया था। मौलवी फैजाबाद 8 जून तक गिरफ्तार रहे तथा 8 जून 1857 को जब फैजाबाद में विद्रोह हुआ तब उन्हें जेल से छुड़ा लिया गया था जहाँ से वे लखनऊ चले गये थे।
दूसरे मौलवी लियाकत अली 7 जून को इलाहाबाद में पहली बार दृष्टिगोचर हुए। इससे पहले इलाहाबाद में भी मौलवी लियाकत अली के देखे जाने का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। के0 तथा मैलीसन का मानना है कि मौलवी दोआब के किसी ऐसे क्षेत्र से इलाहाबाद पहुँचे थे जो कि विद्रोहियों के अधिकार में चला गया था।
मौलवी लियाकत अली के जीवन पर अधिक प्रकाश तो नहीं डाला गया है किन्तु इतना निश्चित है कि किसी समय पर उन्होंने बंगाल सेना में नौकरी अवश्य पा ली थी। सेना में मौलवी लियाकत अली की गतिविधियाँ निश्चित ही अंग्रेज सेना के विरुद्ध रही होगी क्योंकि कम्पनी की बंगाल सेना में उन्हें "हिंसा तथा शरारतपूर्ण गतिविधियों के कारण सेना से निकाल दिया गया था। ऐसा प्रतीत होता है कि मौलवी लियाकत अली ने किसी उद्देश्य विशेष से सेना की नौकरी की थी क्योंकि इसके बाद मौलवी लियाकत अली पहली बार महागाँव मस्जिद में मौलवी बन गये। वास्तव में वे नाना धोंधू पंत के साथी थे , तथा बम्बई पुलिस द्वारा किसी और नाम से रहते हुए पाये गये थे। 24 जुलाई 1872 को इलाहाबाद सत्र न्यायाधीश ए० आर० पौलांक द्वारा काले पानी की सजा का फौसला सुनाया गया।
ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ विद्वान मौलवी लियाकत अली तथा मौलवी अहमदुल्ला शाह को लेकर बहुत हद तक भ्रमित रहे। मौलवी अहमदुल्ला शाह जो फरवरी 1857 से घायलावस्था में फैजाबाद में बंदी बना लिये गये थे | 8 जून 1857 को फैजाबाद की कैद से छुड़ा लिये गये थे तथा 15 जून 1858 को शाहजहाँपुर में पोवांया के राजा जगन्नाथ के किले पर विश्वासघात से मारे गये थे।
मौलवी अहमदुल्ला शाह अवध की बेगम हजरत महल के सहयोगी थे जबकि मौलवी लियाकत अली नाना साहब के साथी थे। मौलवी अहमदुल्ला सीधी और आमने सामने की लड़ाइयाँ लड़ने के आदी थे इसके विपरीत मौलवी लियाकत अली गुरिल्ला युद्ध प्रणाली के कायल थे। 1857 की क्रान्ति के बाद नाना साहब अज्ञात वास में चले गये तभी मौलवी लियाकत भी गायब हो गये और अगले 14 वर्षों तक अंग्रेजों के हाथ नहीं आये। नाना साहब तथा बेगम हजरत महल के सहयोगी एक जुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए थे इसलिये मौलवी अहमदुल्ला तथा मौलवी लियाकत अली के बारे में भ्रम बना रहा तथा पोवांया में मौलवी अहमदुल्ला की हत्या पर प्रचारित भ्रम के कारण फ्रैंडस आप इण्डिया" अंग्रेजी दैनिक ने 1 जुलाई 1858 को यह समाचार प्रकाशित किया था कि शाहजहाँपुर के समीप मारे जाने वाले मौलवी लियाकत अली नहीं बल्कि अहमदुल्ला शाह थे।
लार्ड हलहौजी द्वारा अवध के अपहरण ने मौलवी अहमदुल्ला शाह को इस हद तक आहत किया कि उन्होंने तभी से अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने की योजना बनानी आरम्भ कर दी । वह इस बात को भली प्रकार समझते थे कि सशस्त्र क्रान्ति की सफलता के लिये सेना के साथ-साथ साधारण जनता की सक्रिय सहभागिता भी परम आवश्यक है। जनता को राजनीतिक रूप से जाग्रत तथा शिक्षित करने के लिये उन्होंने फकीरी वेश का सहारा लिया। इस बात के अनेक साक्ष्य उपलब्ध हैं कि क्रान्ति के प्रस्फुटन के लगभग दो वर्ष पूर्व से उत्तरी भारत के महत्वपूर्ण नगरों एवं सैनिक छावनियों रहस्यपूर्ण फकीरों की हलचल काफी बढ़ गई थी। फकीरों की गतिविधियों एवं उपस्थिति अंग्रेज अधिकारी पर्याप्त उलझन में थे। लेकिन उनकी योजना तथा इरादों के विषय में वे कुछ भी पता ही कर पाये थे। मौलवी अहमदुल्ला शाह के विषय में भी प्रमाण मिलते हैं कि फकीर के वेष में देश के अनेक भागों विचरण करते हुए उन्होंने स्थान-स्थान पर अपने अनुयायी बनाये। मौलवी का फकीरी वेश देश की आम जनता को क्रान्ति के लिये तैयार करने का प्रभावशाली एवं सफल माध्यम सिद्ध हुआ और वह अंग्रेज अधिकारियों के लिये सिर दर्द बन गये। जब वह आगरा में ठहरे हुए थे तब मजिस्ट्रेट ने उनके ऊपर कड़ी निगरानी रखने के आदेश दिये ,और बाद में उनके निष्काषन के आदेश भी जारी किये गये|
दिल्ली, मेरठ, पटना तथा कलकत्ता आदि अनेक महत्वपूर्ण अंग्रेजी छावनियों में अहमदुल्ला शाह की फकीरी वेश मेंउपस्थिति के साक्ष्य मिलते हैं। लखनऊ में जब वह घसियारी मन्डी में ठहरे हुए थे,तब शहर कोतवाल ने इन्हें वहाँ से चले जाने का आदेश दिया था। 1857 में क्रान्ति के प्रस्फुटन से पूर्व अंग्रेजों के विरुद्ध संदेह और नफरत की परछाई तथा कोई गुप्त संदेश की झलक चपातियों के वितरण की घटना में देखने को मिली। इन चपातियों के विवरण का उद्देश्य अंग्रेज़ों का प्रतिरोध करने के लिए आह्वान करने और हिन्दुस्तानियों को धर्म भ्रष्ट करने के उनके इरादों के बारे में चेतावनी देने का था। उस समय गंगा-यमुना के दोआब, अवध और रुहेलखण्ड में अंग्रेजों के भारतीयों के धर्म के इरादों के सम्बन्ध में संदेह और शंका व्यापक रूप से फैलाई गई थी। हिन्दू और मुसलमान दोनों को लगने लगा था कि अंग्रेजों का उद्देश्य उन्हें धर्म भ्रष्ट कर ईसाई बनाने का है। सैनिकों को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काने का जो कार्य चर्बी लगे कारतूसों ने किया वही कार्य ग्रामीण तथा शहरी जनता के बीच चपातियों के वितरण ने किया। मैलेसन की मान्यता है कि चपाती योजना मौलवी फैजाबाद अहमदुल्ला शाह दिमाग की उपज थी वही इसके प्रणेता थे|
फरवरी 1857 में मौलवी जब फैजाबाद की एक सराय में अपने साथियों और अनुयाइयों के साथ ठहरे हुए थे तब 22 वीं नेटिव इनफैन्ट्री के लेफ्टीनेन्ट थामस ने चुपचाप अचानक अपने सैनिकों के साथ मौलवी को घेर कर उन पर आक्रमण कर दिया। इस अचानक हुए हमले का प्रतिकार करते हुए वह घायल हुए और फिर गिरफ्तार कर लिये गये। गिरफ्तारी के समय हथियारों के साथ-साथ मौलवी के पास से अनेक मुसलमानों के पत्र बरामद किये गये जिनमें अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत की बात कही गई थी| मौलवी ने खुले तौर पर अंग्रेजों के विरुद्ध फैजाबाद में जेहाद छेड़ने की घोषणा थी तथा इस आशय के पर्चे भी बाँटे थे। इतना ही नहीं मौलवी जहाँ कही भी जाते थे वहीं खुले रूप से काफिरों (यूरोपियनों) के विरुद्ध जेहाद की घोषणा करते थे| इन सभी गतिविधियों में लिप्त मौलवी को मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गई। फाँसी के क्रियान्वयन होने तक उन्हें फैजाबाद की जेल में रखने का निश्चय किया गया।
10 मई 1857 को मेरठ में क्रान्ति के प्रस्फुटन के साथ समस्त उत्तरी भारत तथा मध्य भारत में एक के बाद दूसरे नगर तथा छावनियाँ अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े हुए। 8 जून 1857 को फैजाबाद की देशी सेना ने क्रांति का बिगुल फूंक दिया। जिनका साथ नागरिकों ने देते हुए घोषणा की कि हम अंग्रेजो को देश से भगाने में पूरी तरह समर्थ हैं | फैजाबाद के क्रान्तिकारीयों ने जेल तोड़कर मौलवी अहमदुल्ला शाह को आजाद ही नहीं करा लिया। बल्कि उनके सम्मान में सलामी दाग कर आगे का नेतृत्व भी उनको सौप दिया| उल्लेखनीय है कि फैजाबाद के क्रान्तिकारी तथा जनता फैजाबाद के सिंहासन पर भी मौलवी को बैठाने का निर्णय ले चुके थे लेकिन उन्होंने विशाल हृदय का परिचय देते हुए वहाँ का सिंहासन राजा मानसिंह को सौंप दिया और स्वयं क्रान्ति की आगे की गतिविधियों के संचालन के लिये लखनऊ की ओर बढ़ने लगे। 30 जून को चिनहट में उन्होंने अंग्रेजी सेना को परास्त कर उनकी तोपों तथा गोला बारुद पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों ने लखनऊ के निकट बेलीगारद तथा मच्छी बाजार को अपने नियन्त्रण मे रखकर मौलवी का मुकाबला करने का निश्चय किया लेकिन दोनों ही स्थानो पर उन्हें मौलवी के हाथो पराजय का मुख देखना पड़ा।
सितम्बर 1857 के अन्तिम सप्ताह में अंग्रेजी सेना ने लखनऊ की घेराबन्दी कर मौलवी पर दबाव बनाने के लिये जनरल आउट्रम, जनरल हैवलाक तथा जनरल नील के नेतृत्व में आक्रमण करने का निश्चय किया। आलम बाग तथा चार बाग में क्रान्ति सैनिकों ने "इंच इंच भूमी के लिये भीषण युद्ध किया | इस युद्ध में जनरल नील को जान से हाथ धोना पड़ा। सितम्बर से दिसम्बर 1857 तक मौलवी अहमदुल्ला •शाह की क्रान्तिकारी सेना जनरल आउट्रम और जनरल हैवलाक को लखनऊ तथा बेलीगारद में उलझाये रही। नवम्बर के अन्तिम सप्ताह में तात्या टोपे की कानुपर में उपस्थिति का समाचार पाकर कैम्पबेल कानपुर की ओर निकला तो मौलवी ने स्थिति को भांप कर अपनी रणनीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर नई योजना बनाई। इसके अनुसार अंग्रेजी सेना पर दो अलग-अलग दिशाओं से आक्रमण कर उसे कुचल डालने तथा कानपुर से उसका संपर्क तोड़ने की थी। यह योजना बुद्धिमता से पूर्ण थी और यदि इतनी ही बुद्धिमत्ता एवं साहस से उसे कार्यरूप में परिषात किया गया होता तो अंग्रेजो की बड़ी दुर्दशा होती | मौलवी ने अपनी सेना को दो भागों में विभक्त कर आउटम की सेना पर पीछे से आक्रमण करने के उद्देश्य से कापुर की ओर बढ़ने लगा। इससे पहले कि यह योजना पूरी होती किसी विश्वासघाती ने आउट्रम को इस योजना की सूचना दे दी जिसके परिणाम स्वरूप क्रान्तिकारीयों को पराजित होना पड़ा। मौलवी खुले मैदान में अंग्रेजों से युद्ध करते हुए घायल होकर गिर पड़े तब उनके साथियों ने बड़ी कठिनाई से युद्ध क्षेत्र से उन्हें हटाकर अंग्रेजों के हाथों बन्दी होने से बचा लिया |
मौलवी अहमदुल्ला एक निश्चित योजना लेकर लखनऊ में अंग्रेजों को उलझाये हुए थे कि किसी भी सूरत में कानपुर और लखनऊ के बीच अंग्रेजी सेनाओं का संपर्क न बन पाये। कैम्पबेल तथा आउट्रम में संपर्क को न बन पाने के लिये उन्होंने 15 फरवरी को आउटूम पर आक्रमण किया। लेकिन मौलवी की इस योजना की पूर्व सूचना भी किसी विश्वास घाती ने आउटूम तक पहुँचा दी थी जिसके परिणाम स्वरूप मौलवी को फिर पराजित होना पड़ा। मौलवी अहमदुल्ला का चरित्र, देशभक्ती तथा दृढ़ निश्चय अद्वितीय था कई बार असफल होते रहने तथा विश्वास घातियों से चोट खाने के बाद भी वह अपने इरादों पर डटे रहे। मौलवी व्यक्तिव के इन गुणों को देखकर राइस होम्स को कहना पड़ा कि "यद्यपि अधिकांश विद्रोही कायर हैं, उनका नेता मौलवी अहमदुल्ला शाह वास्तव में साहस एवं शक्ति में एक बड़ी सेना का नेतृत्व करने योग्य है। " फरवरी 1858 से लेकर 7 अप्रैल 1858 तक मौलवी, जनरल आउटूम, जनरल हैवलाक, ब्रिगेडियर कैम्पबेल तथा होप ग्रांट की सेनाओं से लगातार युद्ध करते रही कई बार ऐसे अवसर भी आये जब वह सफलता के बिल्कुल नजदीक पहुँच चुके थे। किन्तु किसी न किसी कारण से असफलता ही उनके हाथ लगती रही। लेकिन ऐसा एक भी साक्ष्य नहीं मिलता जहाँ असफलता मौलवी को उनके निश्चय से तनिक भी डिगा सकी हो। लखनऊ के पतन से पूर्व 21 मार्च 1858 को सआदत गंज में ल्यूगार्ड ने मौलवी को वहाँ से हटाने की कोशिश की तो मौलवी ने अपने मुटट्ठी भर साथियों के साथ अंग्रेजी सेना का कड़ा मुकाबला किया। मौलवी तथा उसके साथियों ने जिस बहादुरी तथा दृढ़ता का परिचय दिया 1857 के क्रान्तिकारियों में ऐसे दूसरे उदाहरण बहुत कम देखने को मिले हैं। सआदत गंज से हटने से पूर्व मौलवी और उसके साथियों ने अनेक अंग्रेजों की हत्या कर अनेक को घायल किया था। अप्रैल के प्रथम सप्ताह में उन्होंने बेगम हजरत महल के साथ मिलकर लखनऊ पर अधिकार करने का अंतिम प्रयास किया। अंग्रेजों की ओर से होप ग्रांट इन दोनों को रोकने के लिये लखनऊ से बाड़ी की ओर चला। मौलवी ने अपनी सेना को दो भागों में विभाजित करने होप ग्रांट को घेरने का प्रयास किया। लेकिन कुछ असावधानी के कारण होप ग्रांट को मौलवी की योजना की भनक लग गई और लखनऊ पर अधिकार करने की उनकी योजना अंतिम रूप से विफल हुई।
लखनऊ के पतन के पश्चात् मौलवी ने रुहेलखण्ड की ओर ध्यान केन्द्रित किया। शाहजहाँपुर में नाना साहब के साथ मिलकर वह आगे की योजना पर विचार करने लगे। कैम्पबेल शाहजहाँपुर में इन दोनों को उपस्थिति का पता लगते ही वालपोल के साथ शाहजहांपुर पहुंचा और नगर को चारों ओर से घेर कर दोनों क्रान्तिकारी नेताओं को बन्दी बनाने के प्रयास में जुट गया। लेकिन वे द