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जातिजनगणना: फिर बोतल से बाहर निकलेगा मण्डल और कमंडल का जिन्न?

Updated: Aug 5, 2022

भारत में जाति जनगणना बड़ा राजनीतिक मुद्दा रहा है। जनगणना को लेकर समाज बंटता हुआ नजर आता है। यह ठीक आरक्षण की तरह है। इसके अपने समर्थक और विरोधी है। जातिगत जनगणना को लेकर कांग्रेस और भाजपा कभी कोई निर्णय नहीं ले पायी। जबकि दोनों ही दलों के पिछड़े नेता समय-समय इस मांग को उठाते रहे है। फिलहाल आज यह मुद्दा आज गर्म है क्योंकि बिहार में भाजपा के सहयोगी सीएम नितीश कुमार भी जातीय जनगणना के आकड़े जारी करने की मांग करने वालों की कतार में शामिल हो गए है। इसके साथ बिहार में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव और भाजपा को छोड़कर अन्य सभी दल भी इसकी मांग कर रहे है।


आइये समझते है मोदी सरकार जाति जनगणना से डर क्यों रही है?

संसद में मोदी सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह इससे संबंधित पिछड़ी जातियों के आकड़े प्रकाशित नहीं करेंगे। दरअसल इसके पीछे भाजपा की अपनी नेतृत्व की चिंताए है। भाजपा जानती है कि अगर आंकड़ो में पिछड़ों की संख्या अधिक आ गयी तो यह उनके नेतृत्व को चुनौती होगा। पार्टी के पिछड़े नेता अधिक शक्तिशाली नजर आएंगे। जबकि पार्टी में उत्तर प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल, महाराष्ट्र सरीखे छोटे-बड़े राज्यों में नेतृत्व सवर्णों का है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छोड़कर उनके भविष्य के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में दावेदारी ठोक रहे अमित शाह और योगी आदित्यनाथ भी सवर्ण हैं। इसलिए पार्टी में अपनी बारी का इंतजार कर रहे नेता तो कभी भी अपनी थाली पिछड़ों की ओर नहीं खिसकाना चाहेंगे।

भाजपा को लग रहा है कि इन आंकड़ों के बाहर आने के बाद मंडल कमीशन वाली चेतना पिछड़ों में वापस आ सकती है। इसके परिणामस्वरूप एकजुट दिख रहा हिन्दू वापस से जातियों में विभाजित होने का डर पार्टी को है। यह कमंडल की राजनीती को झटका दे सकती है। 'मिले मुलायम-कांशीराम हवा में उड़ गए जय श्री राम' यह नारा और इसके राजनीतिक अनुभव भाजपा नेतृत्व बखूबी समझता है। यह चेतना नए छत्रपों को जन्म दे सकती है। इसके साथ एनडीए के सहयोगियों में बिखराव और जाति के आधार पर अधिक प्रतिनिधित्व पाने की लड़ाई छिड़ सकती है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व और कैडर वोटर पूरे देश में सवर्ण वर्ग से आता है। संगठन, सरकार और टिकट वितरण में पिछड़ों को जगह देकर सन्देश तो दिया गया। लेकिन मुख्य नेतृत्व आख़िरकार सवर्ण वर्ग को ही दिया गया है। उत्तर प्रदेश में इसका उदाहरण है कि केशव प्रसाद मौर्य को चेहरे के रूप दिया लेकिन कुर्सी सवर्ण को ही सौंपी गयी। भाजपा कुछ पिछड़ी जातियों को अपने साथ साधने में सफल जरूर रही है लेकिन उसका पूर्ण विश्वास नहीं जीत सकी। इसलिए पार्टी यह जोखिम नहीं उठाना चाहेगी। यह समस्या कांग्रेस के साथ भी रही है क्योंकि कांग्रेस-भाजपा का कोर वोटर सवर्ण ही रहे है।


The Writer is Harshit Azad (Journalist in Hindustan) & Mridul Krishna Mishra (Journalist in Jansatta)



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